Tuesday, July 29, 2008


एक बार मे घर की
छत पर बैठ पतंग
की डोर के ताने बने
को खेल रहा था
की अचानक पतंग
नीचे की और हो चली
पतंग तो हवा मे फिर
लहरा गयी
पर नज़र उस हरे
रंग की साइकल लिए
मौसमीत से टकरा गयी
उसे देख कर मैं देखता
रह गया
उसकी नीली फ्रौक मे माने
एक नया आसमान मे
हज़रो रंग के सितारो
को देखा

ना जाने क्यो वो परेशान थी
लगा ऐसे की उसको किसी की
की ज़रूरत थी
आसमान मे मेरी पतंग
काट कर लहरा रही थी
और मे सीढ़ियो की लहरो
से भागता भर जा रहा था
सांसो की दौड़ को रुक कर
मे जब उसके सामने था
और वो अपने कली आँखो
से मेरी और एक आस भारी
नज़रो से देख रही थी
ना जानते हुए भी
मुझे उसके साथ कई जन्मो का
रिश्ता लग रहा था
मेने बिना पूछे
उसकी साइकल की चैन
ठीक करदी
और उसका चेहरा देखता रहा
उसकी खुशी देख कर न जाने
मुझे क्या हो गया
और आँखे खुली तो वो
वहा थी ही नही
एक परी जेसे आई
और कही उड़ चली
फिर हर रोज़ मे
उस हरी साइकल के इंतज़ार
मे सड़क को निहारा करता

और फिर एक रोज़ वो वही आई
फिर मेने उसके पास जा
कर साइकल की चैन ठीक की
उसकी मुस्कुराहट को देख
न जाने मुझे क्या हो जाता
उसने बताया पास की गली
मे रहमान चाचा के घर मे
वो किरायेदार हे
मेरे ही स्कूल मे पढ़ने
आई थी
ना जाने मुझे लगा की
खुदा ने जीने का
बहाना मुझे भेज दिया हे
फिर अक्सर कभी खेतो मे
तो कभी नदी के किनारे
तो कभी पहाड़ो मे
वो मैं और हारे रंग
की साइकल एक पेड़ से
टिकी पाई जाती.
वो रमज़ान का महीना था
और मुझे उस ईद का
इंतज़ार था
जब मे उसके घर जाता
पर ये समाज़ मे धरम
भी एक चीज़ होती हे
मा ने कहा की घर से
बाहर मत जाना
दंगे चल रहे हे
जब मैं कुछ रोज़ मे
बाहर आया
तो रहमान चाचा का
घर पूरा उजड़ा पाया
वो हरी साइकल अब वैसी
नही थी
वो पूरी तरह जली हुई थी
मेरे आआँसू उससे पूछ रहे थे
की क्या हुआ
पर वो बज़ुबान थी
बहुत कोशिश की पर
कुछ पता न चला
मेरी उम्र तो
दिन और रात के लिए
बढ़ती रही
पर दिल के किसी
कोने मे
हरी साइकल और वो
टिक कर खड़े रहते हे
बहुत सवाल करते हे
समाज मे मज़हब
क्यू इंसान को इंसान नही रहने देता
कही गुजरात के दंगे तो कही बनारस के
मंदिर मे धमाके हे
मेने तो दुनिया देखी भी नही
और सब कुछ छीन गया
अक्सर मेरे जेहन मे
वो ये कह कर जाती हे
वो और उसकी हरी साइकल
की मुझे बहुत याद आती हे...

Thursday, July 10, 2008

मेरा दोस्त अभि



मेरा दोस्त अभि
एक ऐसी कहानी
हे जो मै
रोज़ पढ़ता हु
और हर बार
वो एक दिलचस्प
दिल को छूती
महसूस होती हें
मेरा दोस्त अभि
जितने बार भी
गिरता हे
ठोकर खाता हें
हमेशा मुस्कुरता हें
उसकी हाथ की छड़ी
उसे रास्ता दिखाती हें
पर कभी नही
लगता की उसकी
आंखे नही हे
उसके कपड़ो मे
सुबहे की चमक
और उसके बालो को
देख, मै हमेशा
दंग रह जाता हु
मेरा दोस्त अभि
जब भी किसी लड़की
से मिलता उसके
हाथो को छू कर
कहता की
तुम दुनिया मे
सब से खुबशूरत आकृति हो
बस उनके चहरे की
चमक देख
मै कई बार सोचता
जिनको दुनिया दिखाई
देती हें
उन्हें हर किसी में
कोई त्रुटी नज़र आती हें
मेरा दोस्त अभि
कभी ये नही कहता की
कोई अच्छा या बुरा हे
उसकी आँखों से
सब बहुत
खुबशूरत मालूम होते हे
मेरा दोस्त अभि
कभी नही कहता की
भगवान ने मुझे कुछ
कम दिया
और हम सब तो
बस खुदा को
कोसते रहते हें
मेरा दोस्त अभि
निस्वार्थ सब का बुलाता
हे बताता हे
हाथ थामे चलता हे
पर जिसे सब
देखता हे
वो हाथ थाम कर भी
साथ नही होता
उसकी आंखे
अपने स्वार्थ मे
अंधी होती हे
मेरा दोस्त अभि
तुम्हारी मासूमियत
मुस्कुराती रही
बस
हम सब के दिलो
मे एक अभि
जागे
मेरा दोस्त अभि

Monday, July 7, 2008

I have always been a big fan of Amrita Pritam. This is one of her creation tranlated from punjabi to english:
Mein tainu pher milan gi (I will meet you yet again)
I will meet you yet again
How and where?
I know not.
Perhaps
I will become
a figment of your imagination
and maybe,
spreading myself
in a mysterious lineon your canvas,
I will keep gazing at you.
Perhaps
I will become a ray of sunshine,
to beembraced by your colours.
I will paint myself on your canvas
I know not how and where
but I will meet you for sure.
Maybe I will turn into a spring,
and rub the foaming drops of water on your body,
and rest my coolness on your burning chest.
I know nothing else
but that this life
will walk along with me.
When the body perishes,
all perishes;
but the threads of memory
are woven with enduring specks.
I will pick these particles,
weave the threads,
and I will meet you yet again. —-Amrita Pritam.

~~~एक विचार~~~


एक विचार चाहता हु
अपने देश के लिए कुछ
करना चाहता हु
हर तरफ़ खुशी
और सुख हो
एक
नया बदलाव
की उम्मीद चाहता हु
हर घर मे खाने
के लिए पूरी रोटी
और ओड़ने के
लिए पुरी चादर
ऐसा
एक विचार चाहता हु
धर्म के नाम
पर किसी भाई का
खून न हो
जाति के नाम पर
अपने अपनों से
अलग न हो
एक विचार चाहता हु
मेरा वतन तेरे लिए
हमारा सब कुछ
निछावर
मेरे लहू के
हर कतरे मे
"वंदेमातरम"
लिखो हो
बस
पूरे भारत
मे यही
एक विचार चाहता हु

riou

Friday, July 4, 2008

~~~~~~दुरिया~~~~~~

दुरिया बहुत करीब से
गुजर जाती हे
ए जाने वाले
तेरे आने
की आस में
जिंदगी सीढ़ियो पर
खड़ी कब से न जाने
कितनी राते
कितने चाँद निहारते
हुए गुजर जाती हे

Thursday, July 3, 2008

~~~~~दहलीज़~~~~~~

वो रुकी थी दहलीज़ पर

खड़ी थी वहा

कुछ आने का इंतज़ार था

पीछे से माँ की आवाज़ आई

"कजरी देख चुलहा गरम

हो गया क्या ?"

पर उसके अंदर तो आज

कुछ और जल रहा था

कजरी ने कदम बढाया था

वो आज इस दहलीज़ को लाँघ कर

उस दुनिया मे जाने की

कशमकश मे खड़ी थी

आख़िरी लम्हा था घर का

इस दहलीज़ को कई

बार लाँघा उसने

पर आज वो

अहसास कुछ अलग थे

उस पार दूसरी दुनिया

आंखे खोले खड़ी थी

कल फिर ये रिश्ते

बदल चुके होंगे

बापू की प्यारी बिटिया

भाई की संस्कारी बहन

एक कदम बढाते

अपने अपने ना होंगे

ये दहलीज़ लाँघ कर

मै शायद मे ना रहूंगी

पर प्यार तेरे ख़याल हे

की मै आज सब छोड़ आई हू

तू आज फिर

मूझे नया नाम दे

फिर एक दहलीज़

पर एक नया रिश्ता होगा

मै वही रहूंगी

पर वो पुरानी दहलीज़

और रिश्ता ना होंगे

Wednesday, June 25, 2008

~~~~यादे, बस यादे ~~~~~

कदम रुक जाते हे
कई बार पलट कर
जब हम बीते लम्हों को टटोलते हे,
यही तो तुम खड़े थे
वो कम शक्कर की चाय के कप पर
वो बरसती शाम की बूंदों पर
तुमने मुझे पास बुला कर कहा था
की "तुम्हारे बिना जिया नही जाता"
वो बूंदे गवाह थी, तुम्हारे इज़हार की
वो गवाह वक्त के साथ सूख गए
पर यादे.....
वो वही उसी कमरे में
खिड़की पर तुमसे छुट गई
चाय का कप तो धुल गया
पर उस मे जमी तुम्हारी
खुशबू मिट नही पाई...
आज भी बारिश बहुत तेज हे
खुली खिड़की की आवाज़.. लगता हे
तुम्हे बुला रही हे
कदम रुक जाते हे
कई बार पलट कर जब हम
बीते लम्हों को टटोलते हे..

मैं बताना चाहता हू.

कुछ अल्फ़ाज़ खुदा से उधार चाहता हू
फिर तुझे कुछ आज, मैं बताना चाहता हू..

तुम मुझसे रूठा करो इस तरह
मैं तुम्हे हर बार मनाना चाहता हू...

तुम दूर होकर भी दूर नही लगते
क्यू मैं खुद को ये बताना चाहता हू...

Monday, June 23, 2008

मेरी पेंशन

अब इस लम्हा मे फिर जवान हुआ हू
आज फिर वो तारीख हे
जिससे मे अपनी अंजली के
छोटे छोटे हाथो मे
ढेर सारी खुशिया
भर दूँगा
अक्सर वो नन्हे हाथो से
मुझे छू कर अपना प्यार
दिखती हे
काई बार प्यार से "दादू"
कह कर तुतलाती जूबान
से मुझे बुलाती हे
उसकी तो माँ भी
मैं हू ओर पिता भी..
हर बार सोचता हू
की इस महीने अंजली
को ढेर सारी खुशिया दूँगा
पर कम्बख़्त ये आठ सौ रुपये की
पेंशन ने आरज़ू का
गला दबा रखा हे
चाह कर भी मैं
उसे महीनो से
एक नयी फ्रोक नही दिला पाया हू
आज भी लौटते हुए
बनिए का हिसाब चुका आया हू
फिर उसकी नन्ही आँखो मे
ख्वाब को तैरता पाया है..
गली के मोड़ से ये गुब्बारे
ही ला पाता हूँ
मेरी बच्ची मैं तो तेरे लिए
सारा ज़हा खरीदना चाहता हू...

Sunday, June 22, 2008

वो एक ज़िंदगी, जब आई थी छूने

वो एक ज़िंदगी, जब आई थी छूने
तो कोई वादा तो लिया नही उसने
की बैठी थी उम्र भर
मेरे पहलू मे, मेरे लिए हरदम
सोचती, जागती, हस्ती, खेलती
हमेशा ताकेगी मुझे, हर ओर से
ये चुभन हमेशा होगी
ना कहा था उसने कभी
ना कभी बोला था उसने की
हर रंग मेरे उसकी रोशनी होगी
कटोरों में भरी चाँदनी होगी
कभी तो अमावस भी होगी
कभी तो गम के साए भी होंगे
ज़िंदगी तुझसे कोई शिकवा नही
ये भी तो कम नही
की तू छू कर गयी
थी कभी...