Monday, June 23, 2008

मेरी पेंशन

अब इस लम्हा मे फिर जवान हुआ हू
आज फिर वो तारीख हे
जिससे मे अपनी अंजली के
छोटे छोटे हाथो मे
ढेर सारी खुशिया
भर दूँगा
अक्सर वो नन्हे हाथो से
मुझे छू कर अपना प्यार
दिखती हे
काई बार प्यार से "दादू"
कह कर तुतलाती जूबान
से मुझे बुलाती हे
उसकी तो माँ भी
मैं हू ओर पिता भी..
हर बार सोचता हू
की इस महीने अंजली
को ढेर सारी खुशिया दूँगा
पर कम्बख़्त ये आठ सौ रुपये की
पेंशन ने आरज़ू का
गला दबा रखा हे
चाह कर भी मैं
उसे महीनो से
एक नयी फ्रोक नही दिला पाया हू
आज भी लौटते हुए
बनिए का हिसाब चुका आया हू
फिर उसकी नन्ही आँखो मे
ख्वाब को तैरता पाया है..
गली के मोड़ से ये गुब्बारे
ही ला पाता हूँ
मेरी बच्ची मैं तो तेरे लिए
सारा ज़हा खरीदना चाहता हू...

6 comments:

कुश said...

बहुत गहरे भाव..

रंजू भाटिया said...

आपके ब्लॉग का नाम मुझे बेहद पसंद आया ..और यह कविता जैसे आईना है आज के मिडिल क्लास का जो सारे जहान की खुशियाँ अपने बच्चो को देना चाहते हैं .दिल से पसंद आई आपकी कलम से निकली यह रचना लिखते रहे

Saee_K said...

sundar kavita..
gehri bhawnaye..

likhte rahe

Shishir Shah said...

kya khub dard ko shabdon mein dhala hain...lajawab...

श्रद्धा जैन said...

hmmmmmm dadu ki penshion ka kam hona aur bachhon ki masoom khwahishen

zindgi bhar chadar main simate hue bhi chadar puri nahi padhti
aise hi shayad zindgi nikalte hain hamare desh ke kayi hazaar log

नीला आसमान said...

@Kush
Its all your efforts!!

@Ranju ji

Thanks for ur motivation...
But this is possible becos of Kush help...
@Saee
Bahut dhanyebad hey
@Taeer
Thanks for ur inspiration
@Shardha ji
Nice to c ur comments!! :)