छत पर बैठ पतंग
की डोर के ताने बने
को खेल रहा था
की अचानक पतंग
नीचे की और हो चली
पतंग तो हवा मे फिर
लहरा गयी
पर नज़र उस हरे
रंग की साइकल लिए
मौसमीत से टकरा गयी
उसे देख कर मैं देखता
रह गया
उसकी नीली फ्रौक मे माने
एक नया आसमान मे
हज़रो रंग के सितारो
को देखा
ना जाने क्यो वो परेशान थी
लगा ऐसे की उसको किसी की
की ज़रूरत थी
आसमान मे मेरी पतंग
काट कर लहरा रही थी
और मे सीढ़ियो की लहरो
से भागता भर जा रहा था
सांसो की दौड़ को रुक कर
मे जब उसके सामने था
और वो अपने कली आँखो
से मेरी और एक आस भारी
नज़रो से देख रही थी
ना जानते हुए भी
मुझे उसके साथ कई जन्मो का
रिश्ता लग रहा था
मेने बिना पूछे
उसकी साइकल की चैन
ठीक करदी
और उसका चेहरा देखता रहा
उसकी खुशी देख कर न जाने
मुझे क्या हो गया
और आँखे खुली तो वो
वहा थी ही नही
एक परी जेसे आई
और कही उड़ चली
फिर हर रोज़ मे
उस हरी साइकल के इंतज़ार
मे सड़क को निहारा करता
और फिर एक रोज़ वो वही आई
फिर मेने उसके पास जा
कर साइकल की चैन ठीक की
उसकी मुस्कुराहट को देख
न जाने मुझे क्या हो जाता
उसने बताया पास की गली
मे रहमान चाचा के घर मे
वो किरायेदार हे
मेरे ही स्कूल मे पढ़ने
आई थी
ना जाने मुझे लगा की
खुदा ने जीने का
बहाना मुझे भेज दिया हे
फिर अक्सर कभी खेतो मे
तो कभी नदी के किनारे
तो कभी पहाड़ो मे
वो मैं और हारे रंग
की साइकल एक पेड़ से
टिकी पाई जाती.
वो रमज़ान का महीना था
और मुझे उस ईद का
इंतज़ार था
जब मे उसके घर जाता
पर ये समाज़ मे धरम
भी एक चीज़ होती हे
मा ने कहा की घर से
बाहर मत जाना
दंगे चल रहे हे
जब मैं कुछ रोज़ मे
बाहर आया
तो रहमान चाचा का
घर पूरा उजड़ा पाया
वो हरी साइकल अब वैसी
नही थी
वो पूरी तरह जली हुई थी
मेरे आआँसू उससे पूछ रहे थे
की क्या हुआ
पर वो बज़ुबान थी
बहुत कोशिश की पर
कुछ पता न चला
मेरी उम्र तो
दिन और रात के लिए
बढ़ती रही
पर दिल के किसी
कोने मे
हरी साइकल और वो
टिक कर खड़े रहते हे
बहुत सवाल करते हे
समाज मे मज़हब
क्यू इंसान को इंसान नही रहने देता
कही गुजरात के दंगे तो कही बनारस के
मंदिर मे धमाके हे
मेने तो दुनिया देखी भी नही
और सब कुछ छीन गया
अक्सर मेरे जेहन मे
वो ये कह कर जाती हे
वो और उसकी हरी साइकल
की मुझे बहुत याद आती हे...